अयोध्या, । राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद के विवाद का पटाक्षेप लंबी अदालती लड़ाई के बाद हो गया है। इस पूरे विवाद का उभार भले ही 90 के दशक में हुआ हो लेकिन वास्तव में यह लड़ाई ब्रिटिश हुकूमत के पहले से जारी थी। अपने आराध्य रामलला के लिए अवध की रियासतों ने भी समय-समय पर लंबी जंग लड़ी हैं। सन्1853 में हिदुओं का आरोप था कि भगवान राम के मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण हुआ। इस मुद्दे पर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच पहली हिंसा हुई।
कहा जाता है कि 1527-28 ईसवीं में बाबर के सेनापति मीर बाकी ने अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर मंदिर को तोड़ा था जिसका पंडित देवीदीन पाण्डेय के नेतृत्व में युद्ध के रूप में पहला विरोध किया गया था। तब से लेकर आज तक 77 से अधिक युद्ध और सैकड़ों दंगे हो चुके हैं जिसमें लाखों कारसेवकों की जानें चली गईं। इस पवित्र स्थल के लिए श्री गुरु गोविंद सिंहजी महाराज, महारानी राज कुंवर तथा अन्य कई विभूतियों ने भी संघर्ष किया।
फैजाबाद गजेटियर के मुताबिक नवाब वाजिद अली शाह के समय में हिन्दुओं ने जन्मभूमि को वापस पाने के लिए आक्रमण किया। दो दिन और दो रात तक भयंकर युद्ध चला। इस संग्राम में सैकड़ो हिंदू मारे गए बावजूद इसके जन्मभूमि पर हिंदुओं का कब्जा हो गया। इतिहासकार कनिंघम लिखते हैं कि ये अयोध्या का सबसे बड़ा हिन्दू-मुस्लिम बलवा था। हिन्दुओं ने अपना सपना पूरा किया और औरंगजेब द्वारा विध्वंस किए गए चबूतरे को फिर वापस बनाया। चबूतरे पर 3 फीट ऊंचे खस के टाट से एक छोटा-सा मंदिर बनवा लिया जिसमें पुन: रामलला की स्थापना की गई। लेकिन बाद के मुगल राजाओं ने इस पर पुन: अधिकार कर लिया।
नासिरुद्दीन हैदर के समय में मकरही रियासत के राजा के नेतृत्व में हिंदुओं ने तीन बार आक्रमण किया। इस लड़ाई में भीटी, हंसवर, मकरही, खजुरहट, दीयरा, अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह आदि सम्मिलित थे। इस लड़ाई में भी बड़ी संख्या में हिंदुओं की मौत हुई। यह सब देखकर हारती हुई हिंदू सेना के पक्ष में चिमटाधारी साधुओं की सेना आ जाती थी। चिमटाधारी साधुओं का साथ मिलने के बाद शाही सेना को हार का सामना करना पड़ा और राम जन्मभूमि पर एक बार फिर हिंदुओं का कब्जा हो गया था। इसके कुछ दिन बाद ही विशाल शाही सेना ने फिर युद्ध छोड़ दिया। इस लड़ाई में हजारों राम भक्तों को जान गवांनी पड़ी और एक बार फिर शाही सेना का कब्जा राम जन्मभूमि पर हो गया था।
वहीं सन् 1857 की क्रांति में बहादुरशाह जफर के समय में बाबा रामचरण दास ने एक मौलवी आमिर अली के साथ जन्मभूमि के उद्धार का प्रयास किया। कुछ कट्टरपंथी मुस्लिमों को यह बात स्वीकार नहीं हुई और उनके विरोध के चलते 18 मार्च सन् 1858 को कुबेर टीला स्थित एक इमली के पेड़ में दोनों को एकसाथ अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया। विवाद के चलते 1859 में ब्रिटिश शासकों ने विवादित स्थल पर बाड़ लगा दी और परिसर के भीतरी हिस्से में मुसलमानों को और बाहरी हिस्से में हिन्दुओं को प्रार्थना करने की अनुमति दे दी।